मंगलवार, 12 अगस्त 2014

"गुनाह"


तन्हा क्यूँ हूँ मैं
तेरे होने के बाद भी,
प्यासी क्यूँ है सांस
इतना पीने के बाद भी..

दर दर की शराब
उतारी है हलक से,
तर क्यूँ न हुआ
फिर अक्स शर्म से..

रवि कह नहीं सकता
पिला दे एक बार,
हर ख़्वाब कमबख्त
पर तेरा नाम ले..

देखूँ मैं भी कब आएगी
मय प्याले को चखने,
आधी उम्र की आवारगी
बाकी थोडा और सही..

अब न लौटूंगा तेरे  पास
निकालने को दफन खंजर,
दर्द बड़े काम का निकला ये

अब गुनाह कर सुकून है मुझे.... 


शनिवार, 1 जून 2013

"केंचुल"



आशंकित सशंकित इंसान
लगा है निज आवरण बचाने में
जो बनाता रहा जीवन पर्यंत
कभी चाहे , कभी अनचाहे

जुटा है अपनी केंचुल बचाने में
जो दरकती जाती है
स्वत: ही समय के साथ
और कभी दूसरों के नोचने से ....................



सोमवार, 31 दिसंबर 2012

चरित्रहीनता: विकराल सामाजिक समस्या

एक जोरदार झटका,
और शुरू हो गया विचारो का मंथन,
कई मंचो पर चिल्लाने लगे बुद्धिजीवी,
सियार की तरह,
कैसे हुआ ये ?
क्यों हुआ ?
अरे पकड़ो,
कौन है जिम्मेदार ?
लटका दो फांसी पर,
बना दो नपुंसक उन पिशाचो को,
जिन्होंने नरेन्द्र, गाँधी, बुद्ध की भूमि को,
कलंकित किया है |
पर कोई नहीं बात करता,
और न करना चाहता,
इस सतत, स्वाभाविक, जन्मजात मानवीय विकृति को,
जिसको हराया था गाँधी ने, नरेन्द्र ने और बुद्ध ने,
अपने चरित्र के बल पर,
हाँ हाँ चरित्र निर्माण ...
चरित्र निर्माण ही है समाधान,
यही तो है जो कमजोर हो गया है,
आधुनिकता, वैश्वीकरण,
धन लोलुपता की चाह में |

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

जिस घर में मैं रहती हूँ .....

 स्त्रीमन कि एक अवस्था को  पुरुष ह्रदय से टटोलने का प्रयास है ये पंक्तियां..........


गन्दी , अयोग्य , धुंधली
कहा था मुझे उस घर के लोगो ने ,
जिस घर में मैं रहती हूँ .
मूक , शांत , निष्भाव
रहना पड़ता है मुझे वहाँ,
जिस घर में मैं रहती हूँ

समय के थपेडों ने
धीरे धीरे तोड़ा मुझे
अच्छा हुआ मैं टूट गयी
झांक सकती हूँ मैं अब
चिटके पटल की दरार से
बंद वातावरण सी स्तिथि को अपनी

मौजूद है अब भी सब यादें
कमजोर हो चुके मस्तिस्क में मेरे
नहीं था इतना सुन्दर , इतना उच्च
इतना दुखपूर्ण  घर मेरा ,

कौन  थी मैं याद है मुझे
तब तुम युवा थे
चाहा था तुमने कि कोई "तुम" बने
तब भावों की पेंसिल से
अपने कोमल , निष्कपट ह्रदय पर
कुरेद-कुरेद किया था रेखांकित मुझे

पर हाथ कांप उठे तुम्हारे तब
जब भरना था रंग रीतियों का
और तुम न भर सके ......
मैं रोई , चिल्लाई , गिडगिडायी
और नीलाम  हो गयी
किसी भावहीन चिय्रकार को ,

लीपापोती की उसने मेरे ऊपर
टांग दिया अपने बंद घर की दीवार पर
रो उठा था तुम्हारा रेखाचित्र
दबाव डालता रहा रंगों पर
कि छूट जाएँ वो ....

नहीं  चाहिए मुझे रंगीन जीवन
तुम्हारा रेखाचित्र ही है मेरी आत्मा
बहना चाहता है लाल रंग
चिटके पटल कि दरारों  से
मुक्त होनी चाहती है आत्मा वहां से
जिस घर में मैं रहती हूँ............




शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

कैसे लौटूं ......


एक सुबह अपनों ने जगाया मुझे,
आशीर्वाद दिया और बोला कि जाना है तुम्हे कुछ करना है..
आँख मलता मैं जाना नहीं चाहता था ...
पापा रोक लो, मम्मी रोक लो , प्रिये मैं नहीं जाना चाहता
पर किसी ने न सुनी .....................
बाहर बहुत रौशनी थी, चश्मा लगा लिया था
लोग चिल्ला रहे थे तो इयर फोन ठूस लिया था कानो में
खाना भी घर जैसा नहीं मिला मुझे
जो मिला उसी में घर का भाव खोजा था मैंने,
पृथक ना हो जाऊ, सो चाल और बोल
दोनों नयी सीख ली थी.....
एक दिन रात को नीद नहीं आ रही थी
घुटन महसूस होने लगी ,
मन भर के रोया ....
हसरत थी कि मम्मी , पापा, प्रिये
काश कमरे के कोने से
चुपके से देख लेती मेरी पीड़ा तुम,
तो समझ जाती कि जिस रवि को
तुने सींचा था अपने भावो से वो वैसा ही है ,
जलता है , कोसता है अपने में हुए भौतिक परिवर्तन को
जिसको तुमने स्थायी समझ लिया है .....

सोमवार, 1 अगस्त 2011

अन्तर्द्वंद

खून से रिश्ता बनता आया
क्यों रिश्तो से न खून बने ?
सम्बन्ध ही जन्मे भावना
क्यों भावनाओ से न सम्बन्ध बने ?

धर्म बनता कर्म है आया
क्यों कर्मो से न धर्म बने ?
माता से बने है भाई मगर
इन जानो में क्यों न भाई बने ?

मैं चाहता हूँ  ....

तोड़ दो सारी कुरीतियाँ 
बनाना है तुम्हे  कुछ नया
करो तुम वो जो "तुम "  ने कहा
सुनो न किसने क्या है कहा ,

मानवता से प्रेरित हो भाव सभी
न मूल्य रहें  कु-धर्मो का कोई
मानव की श्रष्टि  बना डालो
तो  फिर जाग सके दुनिया सोयी ................


 

" जीवन है एक धुप्प अँधेरा "

जीवन है एक धुप्प अँधेरा 
होता जिसका नहीं सवेरा 
हम सब है बस ओस की बूंदे 
इस जीवन के कोहरे में ,

भाग रहे है इधर उधर 
लड़ते एक दूसरे से  
मानो सभी ख़ोज रहे हो 
छुटकारा इस जीवन से ,

आँखे फाड़े देख रहे है 
क्या रखा है सम्मुख में 
फिर भी हम अनजान ही रहे 
इस प्यारे झूठे जीवन से ,

क्या सुख है और क्या दुःख है ?
है सुब कुछ हमसे परिभाषित 
जीवन बस फल है कुकर्मो का 
न की  खुशी असीमित , 

म्रत्यु हो गयी मानो मेरी 
इस जीवन को पा कर के 
रिश्ते-नाते प्रेम-घ्रणा के 
मोह्पास में फस कर के ,

जीवन तो पर्याय है दुःख का 
म्रत्यु अर्थ है सुख का 
जीवन के हर क्षण  से अच्छा 
होगा अंतिम पल इस जीवन का .....................................